बिल्डर्स को हमेशा सुर्खियों में बना रहना अच्छा लगता है। जब वे फ्लैट नहीं बेच रहे होते हैं तो पोलो टीम खरीदने या क्रिकेट टूर्नामेंट स्पॉन्सर करने में व्यस्त होते हैं। अभी इनके खबरों में बने रहने की वजह प्रॉजेक्ट्स में होने वाली देरी है। बिल्डर्स ने अभी तक कई ऐसे प्रॉजेक्ट्स पूरे नहीं किए हैं, जिन्हें काफी पहले पूरा हो जाना चाहिए था। साथ ही जिन घरों का पूरा पेमेंट हो चुका है, उनको हैंडओवर करने में भी बिल्डर्स बहुत उत्साहित नहीं दिख रहे हैं। इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक करीब एक तिहाई प्रॉजेक्ट्स को देरी का सामना करना पड़ रहा है। देरी की वजहें अलग-अलग हैं। कमजोर मांग, फंड की कमी और नियामक से मंजूरी मिलने में होने वाली देरी प्रमुख कारणों में शामिल है।
प्रॉपर्टी रिसर्च फर्म प्रॉपइक्विटी की हालिया स्टडी के मुताबिक जनवरी 2007 से जून 2009 के बीच देश के तीन बड़े प्रॉपर्टी मार्केट्स (दिल्ली/एनसीआर, मुंबई और बेंगलुरु) में लॉन्च हुए करीब 45 फीसदी प्रॉजेक्ट्स में काम पूरा होने में खासी देरी हुई है। प्रॉपइक्विटी ने जनवरी 2012 में पूरे होने वाले करीब 1,920 प्रॉजेक्ट्स का सर्वे किया। दिल्ली में रहने वाले रिटायर्ड एयर कोमोडोर डी वी एस त्रेहन ने नवंबर 2007 में नोएडा में 2,400 वर्ग फुट का अपार्टमेंट बुक कराया था। त्रेहन की प्लैनिंग थी कि वे साल 2010 की शुरुआत में परिवार के साथ इस फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे, क्योंकि बिल्डर ने इस समय तक उन्हें फ्लैट देने का वायदा किया था। लेकिन पूरी रकम चुकाने के चार साल बाद भी डिवेलपर को त्रेहन को फ्लैट का पज़ेशन देने की जल्दबाजी नहीं है।
उन्होंने बताया, 'मैंने अपना पुराना फ्लैट बेचकर और रिटायरमेंट के लिए बचाए गए पैसे से यह फ्लैट बुक कराया था। रीयल्टी कंपनी ने जनवरी 2010 में मुझे फ्लैट का पज़ेशन देने का वायदा किया। लेकिन 2009 आखिर तक भी प्रस्तावित साइट पर कोई निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ।' इस दौरान त्रेहन ने बिल्डर से कई बार संपर्क किया, लेकिन उन्हें वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा।
वह बताते हैं, 'ऑफिस स्टाफ ने मुझे झूठी कहानियों में उलझाए रखा। स्टाफ ने मुझसे कहा कि हमारे पास ऐसी आधुनिक तकनीक है, जिससे छह महीने के भीतर ही हम अपार्टमेंट तैयार कर लेंगे।' हालांकि, इस तरह की परेशानी झेलने वाले त्रेहन अकेले नहीं हैं। ऐसे लोगों की कतार काफी लंबी है, जिन्हें अपना बुक कराया गया फ्लैट मिलने का इंतजार है। फ्लैट में होने वाली देरी के कारण उन्हें बिल्डर्स से किसी तरह का मुआवजा भी नहीं मिला है। फ्लैट मिलने में होने वाली यह देरी उन लोगों के लिए और भी मुश्किल भरी है, जिन्होंने ईएमआई का भुगतान शुरू कर दिया है। हालांकि, इस स्थिति में कोई सुधार आने की उम्मीद फिलहाल नहीं दिखाई देती है, क्योंकि बिल्डर्स के सामने नकदी का संकट बना रहेगा और ज्यादातर शहरों में प्रॉपर्टी की मांग में कमजोरी देखने को मिलेगी।
इसके अलावा, महंगाई भी भारतीय रिजर्व बैंक के कम्फर्ट लेवल के ऊपर बनी हुई है, ऐसे में होम लोन के मोर्चे पर अचानक कोई कदम देखने को नहीं मिलेगा। बिल्डर्स भी इस समस्या की गंभीरता को महसूस करने लगे हैं। उनका कहना है कि चीजों के उनके नियंत्रण में न होने के कारण प्रॉजेक्ट बेवजह लेट हो जाते हैं। फिलहाल, बिल्डर्स इस मसले पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इसी कवायद के तहत इंडस्ट्री से जुड़ी एक संस्था अपने 6,000 मेंबर्स के लिए कोड ऑफ कंडक्ट लेकर आई है। इस कदम की खासी सराहना हुई है, लेकिन इसे लागू करने को लेकर सवाल बने हुए हैं।
नैशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) के एक डिवेलपर ने बताया, 'आखिर मैं क्या कर सकता हूं। अगर बहुत होगा तो असोसिएशन से मेरी मेंबरशिप कैंसल हो जाएगी।' लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि यह कोड ऑफ कंडक्ट उपयोगी नहीं है। इससे डिवेलपर्स द्वारा खरीदारों की शिकायतों को निपटाने वाले रवैये में बदलाव देखने को मिलेगा। लेकिन आगे की राह बहुत आसान नहीं है। मौजूदा समय में किसी खरीदार को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि डिवेलपर्स को कोड ऑफ कंडक्ट का पालन करना है, इसलिए वह अपने प्रॉजेक्ट पर तेजी से काम करेगा।
बिल्डर्स का सेल्फ रेग्युलेशन
देशभर में 6,000 से ज्यादा रियल एस्टेट डिवेलपर्स की मेंबरशिप वाली संस्था क्रेडाई ग्राहकों की समस्याएं सुलझाने के लिए मेंबर से एक कोड ऑफ कंडक्ट पर दस्तखत करा रही है। इसके साथ ही उसने कंस्यूमर ग्रीवांसेज रिड्रेसल फोरम भी शुरू किया है जहां रियल एस्टेट प्रॉपर्टी का खरीदार क्रेडाई के किसी भी मेंबर के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकता है।
कोड ऑफ कंडक्ट
टाइटल: टाइटल सर्टिफिकेट में प्रॉजेक्ट का सही डिस्क्लोज़र देना होगा। उसमें डिवलपर के अधिकार और जवाबदेही का उल्लेख होगा।
मंजूरियों की जांच: खरीदार के साथ अग्रीमेंट के वक्त डिवेलपर को बताना होगा कि प्रॉजेक्ट के लिए क्या क्या मंजूरी हासिल की जा चुकी है।
बुकिंग: संबंधित अधिकारियों से प्लान सैंक्शन होने, कमेंसमेंट सर्टिफिकेट और क्लियरेंस मिलने के बाद ही डिवेलपर बुकिंग शुरू कर सकेंगे।
अग्रीमेंट ऑफ सेल: डिवेलपर को धरोहर राशि यानी अर्न्ड मनी या कोई और डिपॉजिट मिलने के तुरंत बाद कस्टमर के साथ अग्रीमेंट करना होगा।
पेमेंट: पेमेंट को कंस्ट्रक्शन की प्रगति के हिसाब से तय करना होगा।
देरी से लागत में बढ़ोतरी: डिवेलपर फ्लैट का सेल अग्रीमेंट होने के बाद उसकी कीमत नहीं बढ़ाएंगे।
सेल वाला एरिया: डिवेलपर को कारपेट एरिया या बिल्ट-अप एरिया के हिसाब से सेल का ऑफर देना होगा।
कोड में दिक्कत
इस कोड के हिसाब से इन शर्तों को मानने की सिफारिश की जा सकती हैः
क्रेडाई के पास दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। यह सिर्फ डिवेलपर का लाइसेंस कैंसिल कर सकती है।
रिड्रेसल फोरम में कस्टमर की शिकायतों के निपटारे पर फैसला करने वाली समिति में डिवेलपर भी शामिल होंगे।
कुछ फैसले जिनका इस्तेमाल आप मिसाल देने के लिए कर सकते हैं...
कोर्ट और कंस्यूमर्स फोरम ने अक्सर होम बायर के हक में फैसले दिए हैं। हम कुछ ऐसे फैसलों के बारे में बता रहे हैं, जो आपके काम के साबित हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले
-कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट के तहत हाउसिंग कंस्ट्रक्शन एक सर्विस है
सुप्रीम कोर्ट ने फ्लैट समय पर नहीं देने के लिए 1993 में लखनऊ डिवेलपमेंट अथॉरिटी के खिलाफ मामले में फैसला एम के गुप्ता के पक्ष में दिया था। इस अहम फैसले ने हाउसिंग कंस्ट्रक्शन को कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट, 1986 के दायरे में ला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, 'परिभाषा (सर्विस का) को व्यापक बनाने का मकसद इसके तहत न सिर्फ आम आदमी से संबंधित रोजाना की खरीद और बिक्री गतिविधियों को लाना है बल्कि उन कामकाज को भी लाना है, जो दूसरी तरह से कमर्शल नेचर की नहीं हैं। जब कोई लीगल अथॉरिटी कोई लैंड डिवेलप करती है, साइट अलॉट करती है या आम आदमी के फायदे के लिए मकान बनाती है तो इसे बिल्डर या कॉन्ट्रैक्टर द्वारा दी जाने वाली सेवाओं की तरह सर्विस माना जाता है। जब तय समय में प्रॉपर्टी नहीं दी जाती है तो यह सर्विस देने से इनकार है।'
-पज़ेशन में देरी पर चुकाना होगा इंट्रेस्ट
गाजियाबाद डिवेलपमेंट अथॉरिटी बनाम बलबीर सिंह, 2005 सीटीजे 124 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'आम तौर पर पज़ेशन देने का मामला भले ही उसमें देरी हुई हो, पज़ेशन नहीं देने से अलग है। इसकी वजह यह है कि देर से पज़ेशन मिलने पर अलॉटी को प्लॉट/फ्लैट का बेनिफिट भी मिलता है। ऐसे में रेट ऑफ इंट्रेस्ट 12 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।' अलग मामले में जिसमें यह पाया जाता है कि विलंब दंडनीय है और अलॉटी की तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरती गई है, जिससे मानसिक या शारीरिक परेशानी हो तो फोरम/कमीशन को जुर्माना लगाने का फैसला देने से नहीं रोका जाएगा।
नैशनल कंस्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल कमीशन के मामले
-डिलीवरी में देर होने पर बायर को प्रॉजेक्ट से बाहर निकलने का अधिकार है
नैशनल कंस्यूमर कमीशन ने कहा है कि डिवेलपर की तरफ से डिलीवरी में देर होने पर बायर हाउसिंग प्रॉजेक्ट से बाहर निकल सकता है। उसने यह भी कहा है कि बायर को वाजिब इंट्रेस्ट के साथ पूरी रकम वापस लेने का भी अधिकार है और बिल्डर द्वारा किसी तरह का डिडक्शन अनुचित है। कमीशन ने आगरा की निवासी इंदिरा गुप्ता की याचिका पर यह आदेश दिया। उन्होंने आगरा डिवेलपमेंट अथॉरिटी द्वारा वापस की जाने वाली रकम में से 20 फीसदी कटौती करने के उत्तर प्रदेश स्टेट कमीशन के निर्देश को रद्द करने की मांग की थी।
-कंस्ट्रक्शन आगे नहीं बढ़ने पर बायर पेमेंट रोक सकता है
अंसल हाउसिंग बनाम रेणु महेंदर मामले (रिवीजन पिटिशन नंबर 1218 साल 2006) में कमीशन ने कहा, 'यदि कंपनी ने प्रतिवादी को प्रॉजेक्ट की स्थिति के बारे में नहीं बताया है, जिसका संबंध असल में प्रतिवादी द्वारा किए जाने वाले पेमेंट से था तो प्रतिवादी का पेमेंट रोकना गलत नहीं है।'
प्रॉपर्टी रिसर्च फर्म प्रॉपइक्विटी की हालिया स्टडी के मुताबिक जनवरी 2007 से जून 2009 के बीच देश के तीन बड़े प्रॉपर्टी मार्केट्स (दिल्ली/एनसीआर, मुंबई और बेंगलुरु) में लॉन्च हुए करीब 45 फीसदी प्रॉजेक्ट्स में काम पूरा होने में खासी देरी हुई है। प्रॉपइक्विटी ने जनवरी 2012 में पूरे होने वाले करीब 1,920 प्रॉजेक्ट्स का सर्वे किया। दिल्ली में रहने वाले रिटायर्ड एयर कोमोडोर डी वी एस त्रेहन ने नवंबर 2007 में नोएडा में 2,400 वर्ग फुट का अपार्टमेंट बुक कराया था। त्रेहन की प्लैनिंग थी कि वे साल 2010 की शुरुआत में परिवार के साथ इस फ्लैट में शिफ्ट हो जाएंगे, क्योंकि बिल्डर ने इस समय तक उन्हें फ्लैट देने का वायदा किया था। लेकिन पूरी रकम चुकाने के चार साल बाद भी डिवेलपर को त्रेहन को फ्लैट का पज़ेशन देने की जल्दबाजी नहीं है।
उन्होंने बताया, 'मैंने अपना पुराना फ्लैट बेचकर और रिटायरमेंट के लिए बचाए गए पैसे से यह फ्लैट बुक कराया था। रीयल्टी कंपनी ने जनवरी 2010 में मुझे फ्लैट का पज़ेशन देने का वायदा किया। लेकिन 2009 आखिर तक भी प्रस्तावित साइट पर कोई निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ।' इस दौरान त्रेहन ने बिल्डर से कई बार संपर्क किया, लेकिन उन्हें वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा।
वह बताते हैं, 'ऑफिस स्टाफ ने मुझे झूठी कहानियों में उलझाए रखा। स्टाफ ने मुझसे कहा कि हमारे पास ऐसी आधुनिक तकनीक है, जिससे छह महीने के भीतर ही हम अपार्टमेंट तैयार कर लेंगे।' हालांकि, इस तरह की परेशानी झेलने वाले त्रेहन अकेले नहीं हैं। ऐसे लोगों की कतार काफी लंबी है, जिन्हें अपना बुक कराया गया फ्लैट मिलने का इंतजार है। फ्लैट में होने वाली देरी के कारण उन्हें बिल्डर्स से किसी तरह का मुआवजा भी नहीं मिला है। फ्लैट मिलने में होने वाली यह देरी उन लोगों के लिए और भी मुश्किल भरी है, जिन्होंने ईएमआई का भुगतान शुरू कर दिया है। हालांकि, इस स्थिति में कोई सुधार आने की उम्मीद फिलहाल नहीं दिखाई देती है, क्योंकि बिल्डर्स के सामने नकदी का संकट बना रहेगा और ज्यादातर शहरों में प्रॉपर्टी की मांग में कमजोरी देखने को मिलेगी।
इसके अलावा, महंगाई भी भारतीय रिजर्व बैंक के कम्फर्ट लेवल के ऊपर बनी हुई है, ऐसे में होम लोन के मोर्चे पर अचानक कोई कदम देखने को नहीं मिलेगा। बिल्डर्स भी इस समस्या की गंभीरता को महसूस करने लगे हैं। उनका कहना है कि चीजों के उनके नियंत्रण में न होने के कारण प्रॉजेक्ट बेवजह लेट हो जाते हैं। फिलहाल, बिल्डर्स इस मसले पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इसी कवायद के तहत इंडस्ट्री से जुड़ी एक संस्था अपने 6,000 मेंबर्स के लिए कोड ऑफ कंडक्ट लेकर आई है। इस कदम की खासी सराहना हुई है, लेकिन इसे लागू करने को लेकर सवाल बने हुए हैं।
नैशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) के एक डिवेलपर ने बताया, 'आखिर मैं क्या कर सकता हूं। अगर बहुत होगा तो असोसिएशन से मेरी मेंबरशिप कैंसल हो जाएगी।' लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि यह कोड ऑफ कंडक्ट उपयोगी नहीं है। इससे डिवेलपर्स द्वारा खरीदारों की शिकायतों को निपटाने वाले रवैये में बदलाव देखने को मिलेगा। लेकिन आगे की राह बहुत आसान नहीं है। मौजूदा समय में किसी खरीदार को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि डिवेलपर्स को कोड ऑफ कंडक्ट का पालन करना है, इसलिए वह अपने प्रॉजेक्ट पर तेजी से काम करेगा।
बिल्डर्स का सेल्फ रेग्युलेशन
देशभर में 6,000 से ज्यादा रियल एस्टेट डिवेलपर्स की मेंबरशिप वाली संस्था क्रेडाई ग्राहकों की समस्याएं सुलझाने के लिए मेंबर से एक कोड ऑफ कंडक्ट पर दस्तखत करा रही है। इसके साथ ही उसने कंस्यूमर ग्रीवांसेज रिड्रेसल फोरम भी शुरू किया है जहां रियल एस्टेट प्रॉपर्टी का खरीदार क्रेडाई के किसी भी मेंबर के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकता है।
कोड ऑफ कंडक्ट
टाइटल: टाइटल सर्टिफिकेट में प्रॉजेक्ट का सही डिस्क्लोज़र देना होगा। उसमें डिवलपर के अधिकार और जवाबदेही का उल्लेख होगा।
मंजूरियों की जांच: खरीदार के साथ अग्रीमेंट के वक्त डिवेलपर को बताना होगा कि प्रॉजेक्ट के लिए क्या क्या मंजूरी हासिल की जा चुकी है।
बुकिंग: संबंधित अधिकारियों से प्लान सैंक्शन होने, कमेंसमेंट सर्टिफिकेट और क्लियरेंस मिलने के बाद ही डिवेलपर बुकिंग शुरू कर सकेंगे।
अग्रीमेंट ऑफ सेल: डिवेलपर को धरोहर राशि यानी अर्न्ड मनी या कोई और डिपॉजिट मिलने के तुरंत बाद कस्टमर के साथ अग्रीमेंट करना होगा।
पेमेंट: पेमेंट को कंस्ट्रक्शन की प्रगति के हिसाब से तय करना होगा।
देरी से लागत में बढ़ोतरी: डिवेलपर फ्लैट का सेल अग्रीमेंट होने के बाद उसकी कीमत नहीं बढ़ाएंगे।
सेल वाला एरिया: डिवेलपर को कारपेट एरिया या बिल्ट-अप एरिया के हिसाब से सेल का ऑफर देना होगा।
कोड में दिक्कत
इस कोड के हिसाब से इन शर्तों को मानने की सिफारिश की जा सकती हैः
क्रेडाई के पास दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। यह सिर्फ डिवेलपर का लाइसेंस कैंसिल कर सकती है।
रिड्रेसल फोरम में कस्टमर की शिकायतों के निपटारे पर फैसला करने वाली समिति में डिवेलपर भी शामिल होंगे।
कुछ फैसले जिनका इस्तेमाल आप मिसाल देने के लिए कर सकते हैं...
कोर्ट और कंस्यूमर्स फोरम ने अक्सर होम बायर के हक में फैसले दिए हैं। हम कुछ ऐसे फैसलों के बारे में बता रहे हैं, जो आपके काम के साबित हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले
-कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट के तहत हाउसिंग कंस्ट्रक्शन एक सर्विस है
सुप्रीम कोर्ट ने फ्लैट समय पर नहीं देने के लिए 1993 में लखनऊ डिवेलपमेंट अथॉरिटी के खिलाफ मामले में फैसला एम के गुप्ता के पक्ष में दिया था। इस अहम फैसले ने हाउसिंग कंस्ट्रक्शन को कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट, 1986 के दायरे में ला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया, 'परिभाषा (सर्विस का) को व्यापक बनाने का मकसद इसके तहत न सिर्फ आम आदमी से संबंधित रोजाना की खरीद और बिक्री गतिविधियों को लाना है बल्कि उन कामकाज को भी लाना है, जो दूसरी तरह से कमर्शल नेचर की नहीं हैं। जब कोई लीगल अथॉरिटी कोई लैंड डिवेलप करती है, साइट अलॉट करती है या आम आदमी के फायदे के लिए मकान बनाती है तो इसे बिल्डर या कॉन्ट्रैक्टर द्वारा दी जाने वाली सेवाओं की तरह सर्विस माना जाता है। जब तय समय में प्रॉपर्टी नहीं दी जाती है तो यह सर्विस देने से इनकार है।'
-पज़ेशन में देरी पर चुकाना होगा इंट्रेस्ट
गाजियाबाद डिवेलपमेंट अथॉरिटी बनाम बलबीर सिंह, 2005 सीटीजे 124 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'आम तौर पर पज़ेशन देने का मामला भले ही उसमें देरी हुई हो, पज़ेशन नहीं देने से अलग है। इसकी वजह यह है कि देर से पज़ेशन मिलने पर अलॉटी को प्लॉट/फ्लैट का बेनिफिट भी मिलता है। ऐसे में रेट ऑफ इंट्रेस्ट 12 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।' अलग मामले में जिसमें यह पाया जाता है कि विलंब दंडनीय है और अलॉटी की तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरती गई है, जिससे मानसिक या शारीरिक परेशानी हो तो फोरम/कमीशन को जुर्माना लगाने का फैसला देने से नहीं रोका जाएगा।
नैशनल कंस्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल कमीशन के मामले
-डिलीवरी में देर होने पर बायर को प्रॉजेक्ट से बाहर निकलने का अधिकार है
नैशनल कंस्यूमर कमीशन ने कहा है कि डिवेलपर की तरफ से डिलीवरी में देर होने पर बायर हाउसिंग प्रॉजेक्ट से बाहर निकल सकता है। उसने यह भी कहा है कि बायर को वाजिब इंट्रेस्ट के साथ पूरी रकम वापस लेने का भी अधिकार है और बिल्डर द्वारा किसी तरह का डिडक्शन अनुचित है। कमीशन ने आगरा की निवासी इंदिरा गुप्ता की याचिका पर यह आदेश दिया। उन्होंने आगरा डिवेलपमेंट अथॉरिटी द्वारा वापस की जाने वाली रकम में से 20 फीसदी कटौती करने के उत्तर प्रदेश स्टेट कमीशन के निर्देश को रद्द करने की मांग की थी।
-कंस्ट्रक्शन आगे नहीं बढ़ने पर बायर पेमेंट रोक सकता है
अंसल हाउसिंग बनाम रेणु महेंदर मामले (रिवीजन पिटिशन नंबर 1218 साल 2006) में कमीशन ने कहा, 'यदि कंपनी ने प्रतिवादी को प्रॉजेक्ट की स्थिति के बारे में नहीं बताया है, जिसका संबंध असल में प्रतिवादी द्वारा किए जाने वाले पेमेंट से था तो प्रतिवादी का पेमेंट रोकना गलत नहीं है।'
0 comments:
Post a Comment